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पर्यावरणविद सुंदर लाल बहगुणा के निधन से उत्तराखंड में शोक,कई संघर्षो के विजेता,अंतिम लड़ाई हारे,खबर @हिलवार्ता

चिपकों आंदोलन के प्रणेता सुंदर लाल बहगुणा नही रहे । 94 वर्ष की आयु में उन्होंने ऋषिकेश एम्स में अपराह्न 2 बजे अंतिम सांस ली ।
8 मई को पर्यावरणविद बहगुणा को हल्के बुखार और कोविड लक्षणों के चलते एम्स में ऋषिकेश में भर्ती कराया गया था । बीच बीच मे उनके स्वास्थ्य में सुधार भी हुआ लेकिन बिगत एक सप्ताह से वह आक्सीजन सपोर्ट पर आ गए । जीवन भर संघर्षों के योद्धा ने 94 वर्ष की उम्र में जीवन का संघर्ष जारी रखा 15 दिन संघर्ष किया आखिरी दम तक । लेकिन काल ने आज उन्हें इस दुनिया से विदा कर ही दम लिया ।


स्व सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले में उनियारा मरोड़ा गांव में हुआ,उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई । आगे की पढ़ाई के लिए लाहौर चले गए वहां सनातन धर्म कॉलेज से उन्होंने बीए किया लोहार से लौटने के बाद बहुगुणा जी ने काशी विद्यापीठ में एम ए में दाखिल लिया लेकिन वह पढ़ाई पूरा नहीं कर पाए । बहगुणा जी की पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से आपने सिलयारा में पर्वतीय नवजीवन मंडल की स्थापना की । बचपन से ही विचारशील बहगुणा आजादी आंदोलन को नजदीक से देख रहे थे समाज के लिए कुछ कर गुजरने की ठानी, आजादी के उपरांत 1949 में मीरा बेन ठक्कर बाप्पा के संपर्क में आने के बाद वे दलित विद्यार्थियों के उत्थान के लिए कार्य करना शुरू कर दिए । सहभागिता से टिहरी में ठक्कर बाप्पा हॉस्टल की स्थापना की । बहगुणा जी ने जब पर्वतीय क्षेत्र में शराब की दुकानें खोलने की सुगबुगाहट हुई विरोध करना शुरू कर दिया ,1971 में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए उन्होंने 16 दिनों तक अनशन किया ।

बहुगुणा जी के नाम दर्जनों आंदोलन हैं उन्होंने जुल्म के खिलाफ गांधीवादी तरीके से कई आंदोलन किए उनमें से एक प्रमुख आंदोलन टिहरी डेम निर्माण का विरोध भी है जिसके लिए उन्होंने 84 दिनों की भूख हड़ताल की । वह बड़े बांधों के खतरों को जानते थे उनका मानना था कि हिमालयी पर्वत श्रंखला अपरिपक्व है वह छेड़छाड़ नही झेल सकती है हुआ भी यही है हालिया केदारनाथ सहित बड़ी आपदाएं हिमालय की तलहटी में छेड़छाड़ का है नतीजा है ।

70 के दशक में पहाड़ में लकड़ी माफिया हरे भरे जंगलों को काट रहे थे इसी बीच चंडी प्रसाद भट्ट और साथियों द्वारा शुरू किए गए चिपको आंदोलन के थिंक टैंक के रूप में बहगुणा जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी चिपकों को सुंदरलाल बहगुणा सरीखे आंदोलनकारियों की जमात ने इसे अंतरराष्ट्रीय फलक पर प्रसिद्धि दिलाई। बहगुणा जी और साथयों के सहयोग से हुए आंदोलन के तहत 26 मार्च 1974 में गोरी देवी के नेतृत्व में पेड़ों से चिपक कर पेड़ों की कटाई पर रोक लगवाने में सफल हुई और उत्तराखंड के संघर्ष की पहचान देश दुनिया तक पहुची ।

इस आंदोलन में पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने जुड़ कर इसे पूरे राज्य के हक हकूक से जोड़ने की कवायद की, उन्होंने आंदोलन को विस्तार दिया और इस जल जंगल तथा जमीन को जीवन की सुरक्षा से जोड़ दिया । जल जंगल जमीन और पर्यावरणीय आंदोलनों से प्रभावित एक अमेरिकी संस्था रेट ऑफ नेचर ने 1980 में बहगुणा को पुरस्कृत किया । वर्ष 1981 में बहगुणा जी को भारत सरकार पदम श्री से नवाजा । तत्कालीन सरकार द्वारा जब यह पुरस्कार बहगुणा जी को दिया जा रहा था उन्होंने यह कहते हुए इसे अस्वीकार कर दिया कि जब तक जंगल कटना नहीं रुकेंगे वह इस पुरस्कार को स्वीकार नहीं करेंगे । सुंदरलाल बहुगुणा चिपको आंदोलन को गांव गांव तक ले गए उन्होंने जन जागरूकता हेतु 1981 से 1983 तक लगभग 5000 किलोमीटर लंबी ट्रांस हिमालय की पैदल यात्राएं की ।
चिपकों आंदोलन का ही परिणाम था कि 1980 से वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा । बहगुणा जी का साफ मानना था कि प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए वन एवं वन्य जीवों का संरक्षण एक सतत प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया के हिस्सेदार हम सभी को होना होगा। जब जल जंगल जमीन बचेंगे तभी प्राणी मात्र भी जीवन जी सकेगा ।

जिस मनीषी ने जिंदगी भर कभी हार नहीं मानी आज कोविड रूपी बीमारी उनको लील गई ।अपराह्न 3 बजे ऋषिकेश के पूर्णानन्द घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया ।बहुगुणा जी के कार्यों की लंबी फेहरिस्त है जिसे पूरा वर्णित करना आसान नही है । कुछ महत्वपूर्ण बिदुओं का उल्लेख कर हिलवार्ता ने महान मनीषी की जीवनी पर प्रकाश डालने की कोशिश मात्र है । हिलवार्ता परिवार की ओर से अश्रुपूरित श्रद्धा सुमन ।

Op pandey @

हिलवार्ता न्यूज डेस्क

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