राष्ट्रीय
जब चिट्ठियां और दस रुपये एक बूथ का खर्च मिलता था लोकसभा चुनाव में,आइये जानते हैंआगे ।
चम्पावत: आजादी के आंदोलन के चश्मदीद रहे,जिला मुख्यालय में प्रतिष्ठित व्यवसाइयों में शुमार 95 वर्षीय पंडित हीरा बल्लभ पांडेय जी चुनाव को लेकर उत्साहित है। वे कहते है कि हर मतदाता को अपने मत का इस्तेमाल करना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश पांडेय ने उनसे चुनाव को लेकर बात की.कहते हैं पंडित जी पुरानी बातों का स्मरण कर वह जोश से भर जाते है ।पंडित जी बताते है कि वर्ष 1952 में जब पहला चुनाव हुआ तो कांग्रेस की एक तरफा लहर थी चुनाव के प्रति लोगों में अच्छा खासा जोश था, स्थानीय नेता सफेद टोपी पहने रहते, हर वोटर को घर से निकलने और वोट करने को कहते, सुबह से ही घर के रोज के काम जल्दी निपटा कर वोट डालने को घर घर से लोग निकल पड़ते थे । पंडित जी कहते हैं आपातकाल तक कांग्रेस का ही राज रहा। हांलाकि प्रजा सोसलिस्ट, जनसंध और निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में होते थे।
इमरजेंसी के बाद वर्ष 1977 में जनता पार्टी बनी और उस समय मुरली मनोहर जोशी अल्मोडा सीट से सांसद बने,1977 में लंबे समय बाद अल्मोड़ा सीट से कांग्रेस का वर्चस्व टूटा।जनसंघ ज्यादा समय सत्ता नहीं चला पाई अगले चुनाव में कांग्रेस के हरीश रावत को टिकट दिया रावत ने इस बार जोशी को हराया । इस चुनाव के बाद लगातार हरीश रावत भी तीन बार सांसद बने । वर्ष 1991 में उन्हें राम लहर के चलते रावत इस सीट को भाजपा के श्री जीवन शर्मा को गवां बैठे। इसके बाद हरीश रावत के लिए दुबारा इस सीट को वापस जीतना सपना सा हो गया सीट भाजपा के पाले जाते रही यहां से तीन बार बची सिह रावत चुनाव जीते और भाजपा की अटल सरकार में राज्यमंत्री भी बने।जब से अल्मोडा सीट आरक्षित हुई है भाजपा कांग्रेस ने एक एक बार यह सीट जीती है.
कहते हैं अब चुनाव में लोगों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखती जैसे पहले होती थी नेताओ के प्रति लगाव कम होते जा रहा है उनका मानना है कि इसका कारण अच्छे प्रतिष्ठित नेताओं की कमी होना है कहते हैं पहले के नेता नैतिकता को सर्वोपरि मानते थे आम आदमी के लिए बात करते थे जीतने के बाद वह सभी के सांसद होते थे आज के नेता पार्टी के लोगों तक सीमित हैं नेताओं की मंशा अपने समर्थकों तक सुविधा प्रदान करने की रह गई है ।
आगे बताते हैं कि 52 में पहला चुनाव हुआ तो पत्राचार से ही ज्यादा प्रचार होता था। पोस्टकार्ड अन्तर्देशी पत्र कुछ घरों तक आते थे जिसमें मे पार्टी की नीतियां लिखी होती गांव के लोग बता देते थे कि फलां फलां दल क्या करने वाला है,यदा कदा गांव में किसी के पास रेडियो हुआ तो वहां जाकर सभी लोग समाचार सुन लेते थे। जिसमे नेताओं के भाषण और नीतियों का प्रचार प्रसार किया जाता था.
ग्रामीण इलाकों में सांसद के प्रत्याशी बहुत कम पहुच पाते थे स्थानीय समर्थक उनकी बातें सुनने शहर कस्बों तक जाते और गांव आकर अपने अपने समर्थकों को नेताओ के विचार बताते, ज्यादातर शहरों तक ही नेता प्रचार में आ पाते थे,तब चुनाव में एक दो वाहन ही होते थे,
एक बूथ के लिए कुछ पोस्टर और पांच या दस रुपया खर्चा आता था।
वो भी ब्लाक स्तर पर । फिर ब्लाक के नेता गांवों में से अपने खास एक आदमी को बुला उसे ही पोस्टर और मतदाता सूची देते बमुश्किल पांच रुपया पकडा दिया जाता कि जुट जाओ,हरीश रावत के टाइम में सर्वाधिक चिठ्ठी से प्रचार होने की बात कहते हुए बताते हैं कि रावत की चिठ्ठी गांव के खास लोगों तक आती थी उनके समर्थक जिसे समर्थको को पढ़कर सुनाते,
पंडित जी बताते हैं असल में गांवों में जाकर प्रचार का सिलसिला उतराखण्ड क्रांति दल के समय से शुरू हुआ, जब अलग राज्य आंदोलन चलाया गया,वर्ष 89 में यूकेडी वाले गांव -गांव गए, उस समय युकेडी चुनाव निशान शेर था । पंडित जी कहते हैं युकेडी के चुनाव चिन्ह शेर को लोग,बाघ समझ लोग कहते हर जगह बाघ बाघ हो रही है.95 वर्षीय हीरा बल्लभ जी कहते अब तो चुनावों में पहले की अपेक्षा काफी अंतर आ गया है। आज अथाह प्रचार सामग्री के साथ ही खूब गाडियां है । जगह जगह रोड होने से उम्मीदवार गांवों तक जा रहे है, खर्चा भी खूब हो रहा है हर प्रकार के माध्यमों से प्रचार प्रसार काफी बढ गया है,आज तो मतदान केंद्रों पर मेला लगा होता है कार्यकर्ता के लिए खर्चा अलग से आता है ।
आज प्रचार के माध्यम बहुत हो गए हैं आज फ़ोन टी वी से पूरे देश की हवा का पता चल जाता है ।पंडित जी कहते हैं कोई भी जीते उसका दायित्व है कि लोकसभा का हर व्यक्ति उसके लिए महत्वपूर्ण होना चाहिए,लोकतंत्र में चुनावी हारजीत के बाद सांसद को अपने छेत्र के चहुमुंखी विकास में जुटना चाहिए, यही लोकतंत्र के असल मायने हैं।
दिनेश पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
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