राष्ट्रीय
लोकसभा चुनाव 2019आइये जानें क्या हैं मुददे, आजादी के बाद से आज तक के पॉपुलर नारों के बारे ,नारे मुद्दों से ध्यान हटाने की साजिश तो नहीं ? समझते हैं ।
लोकसभा 2019 चुनाव सामने हैं संसद चुनी जानी है इधर एक बार फिर जमीनी मुद्दे गायब हैं आरोप प्रत्यारोप चरम पर हैं.चारों ओर चुनावी शोर है टीवी में बहसें हैं पान के खोखे जो अब बचे नही उनकी जगह कभी कभी गुटखे की दुकानों पर हल्की बहसें जारी हैं, सोशल मीडिया में संदेशों की भरमार है मानो पूरा ब्रह्मांड उद्देलित है, एक पार्टी कह रही हम नहीं तो इस जहां से जैसे मानव प्रजाति ही समाप्त होने वाली है , दूसरी कह रही हमें लाओ वरना सब खत्म हो जाएगा , तीसरी अपनी ओर जनता को आकर्षित कर रही जैसे आओ तुम्हारा बेड़ा पार कराऊँ
तमाम गठबंद्धन ठगबंधन की परिभाषाओं से सुज्जित राजनीतिक दल जनता के द्वार हैं,सभी के समर्थक हैं सभी की ढपली है, हर पांच साल में बजती रहती है बजती ही आ रही है पिछले 70 सालों से । फिर भी देखिए देश चल रहा है आइये समझते हैं …
इसलिए नहीं कि किसी दल की सरकार आई और सब उसने बदल दिया शायद इसलिए कि देश में देश को अपनी कड़ी मेहनत से आगे बढ़ाने वाले लाखों प्रतिबद्ध जन हैं,जिसमे नॉकरी पेशा /घरेलू महिलाएं/पुरुष देश की रक्षा में लगे जवान/ अफसर सरकारी कर्मचारी/अफसर स्कूली बच्चे / वकील /डॉक्टर /टीचर /इंजीनयर प्राइवेट संस्थाओं के कर्मचारी पत्रकार लेखक हैं जिन्होंने ईमानदारी पूर्वक जो हो सकता है अपना अधिकतम देश को दिया है । कभी एक रुपया कमीशन नहीं लिया, और जो भी टेक्स बनता है उसे देश हित मे दिया ही दिया है,ये ही लोग निश्चित प्रदत आमदनी के निरंतर कार्य करते हैं , सेवानिवृत्ति के बाद उनके पल्ले जितना होता है उसी से जीवन यापन करते हैं ,उनकी आमदनी दस पचास सौ गुनी नही बढ़ी है, उनके पास दस दस बंगले गाड़ी नहीं हैं,इतिहास गवाह है राजनीति में आया राम गया राम आते जाते रहते हैं आते जाते रहेंगे लेकिन लोकतंत्र के ये ईमानदार स्तम्भ इतनी मजबूती के साथ नींव पक्की करते चले गए,कि पिछले सत्तर साल कि राजनीति की कोई भी धारा इस लोकतंत्र का बाल बांका नहीं कर पाई । समय समय पर राजनीति ने लोकतंत्र को गूंगा बहरा बनाकर अपने सपने पूरे किए हैं तमाम घोटालेबाजों की कोशिशों बाद भी लोकतंत्र खड़ा है और जब तक ईमानदारी बेईमानी पर हावी है देश चलेगा ।
हालिया चुनाव में भी देखा जा रहा है कि आमजन की दैनिक परेशानियों से राजनीतिक दल भाग रहे हैं ? यह प्रश्न बार बार आ रहा है कि देश नारो से चलेगा या काम से ? जनता के मुद्दे हर बार नकारना कब तक चलेगा । जानकार मानते हैं कि असल मुद्दों से भटकाने का प्रचलित राजनीतिक फार्मूला नया नहीं है, और यह भी देखने में आया है कि चुनावों नारों से कभी कुछ हुआ हो वह वोटर को लुभाने के बाद स्वतः नेपथ्य में चले जाते हैं.आइये एक नजर डालते हैं कुछ पॉपुलिस्ट नारों पर कि कब कब क्या नारे प्रचलित हुए और उनका क्या असर हुआ –
सन 60 में कोंग्रेस ने चुनाव के दौरान नारा दिया .·“progrees with congress”1965 में स्व. लालबहादुर शास्त्री ने नारा दिया .” जय जवान जय किसान” इसी बीच कांग्रेस में टूट हुई इंदिरा कांग्रेस का जन्म हुआ उन्होंने नारा दिया “वोट फार काफ एंड काउ,फॉरगेट आल अदर्स नाउ” इसी चुनाव में जनसंघ ने नारा बनाया “देखो इंदिरा का खेल ,खा गई शक्कर पी गई तेल”1967 में एक और पापुलर नारा जनसंघ का दिया वह था “जनसंघ को वोट दो,बीड़ी पीना छोड़ दो “बीड़ी में तम्बाकू है कांग्रेस वाला डाकू है “ जयप्रकाश नारायण ने इमरजेंसी के वक्त नारा दिया “इंदिरा हटाओ देश बचाओ” इमरजेंसी के बाद फिर कांग्रेस का नारा था “इंदिरा लाओ ,देश बचाओ”1978 में एक नारा दक्षिण में बहुत चला “एक शेरनी सौ लंगूर,चिकमंगलूर चिकमंगलूर” 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चुनाव में “जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा,बहुत लोकप्रिय हुआ , बिहार के लोगों ने “जब तक समोसे में रहेगा आलू,तब तक रहेगा बिहार में लालू “ चलाया,1991 में भाजपा और उनके संगठनों ने “बच्चा बच्चा राम का जन्म भूमि के काम का” जैसे नारे ,सपा बसपा गठबंधन ने “मिले मुलायम काशीराम,हवा हो गए जय श्री राम” चलाया। मंडल कमीशन के बाद डरी कांग्रेस ने “जात पर न पात पर,मुहर लगेगी हाथ पर” नारों के साथ धुर्वीकरण की कोशिश की । इसी वर्ष भाजपा ने “बारी बारी सबकी बारी ,अबकी बारी अटल विहारी “ वहीं 1999 में “जांचा परखा खरा” 2009 में “सोनियां नहीं आंधी है दूसरी इंदिरा गांधी है “ अंततः 2014 में “अबकी बार मोदी सरकार” के बाद“अच्छे दिन आने वाले हैं” 2019 में “मोदी है मुमकिन है”सहित“मैं भी चौकीदार” जैसे नारे भाजपा के तरकस में “मोदी भगाओ,देश बचाओ” जैसे नारे कांग्रेस के तरकस में हैं,कभी जनता के नारों संग राजनीति होती थी आज पार्टियों के नारों पर वोट मागे जा रहे हैं भारतीय राजनीति का यह चेहरा बदलना चाहिए, एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप तक सीमित चुनावों को जनता के मुद्दों तक लाने की जिम्मेदारी तो उठानी ही होगी अगर लोकतंत्र को स्वच्छ और स्वतंत्र गति से आगे ले जाना है.
इतिहास गवाह है बंगाल केरल से गरीबी नहीं हटी सबको जमीनों का बराबर बटवारा नही हुआ, पॉपुलिस्ट नारों से कोई बदलाव शायद ही हुआ है, जैसे कांग्रेस के गरीबी हटाओ नारे से गरीबी नहीं हटी, वैसे ही मोदी है मुमकिन है से कितना मुमकिन हुआ पता नहीं । बिहार के नारे वाला समोसा आलू में अभी भी है लेकिन लालू जी नहीं है राजनीति में । यानी राजनीति आज है कल नहीं ,लेकिन देश हमेशा रहेगा ,एक समय जैसा नारा इंदिरा के लिए प्रचलित हुआ एक शेरनी सौ लंगूर यही बात मोदी समर्थक उनके लिए कहते हैं एक शेर बांकी ढेर । यह भी समझने की बात है नेताओं की संपत्ति बढ़ी है सब फले फुले हैं सिवा गरीब के ? चुनाव में गरीब और गरीब की बदहाली का जिक्र नहीं होना चिंताजनक तो है ही इसलिए की हम गरीब देशों की सूची में अपमानजनक स्तिथी मे हैं ।
पॉपुलिस्ट नारे प्रतियाशियों को जिताने में चाहे मददगार साबित हुए हों लेकिन इन नारों ने आम मुद्दों को चुनावों से हमेशा दूर करने के सिवा कुछ किया नहीं है ।
जरूरत होनी चाहिए चुनाव में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की बात हो, स्थानीय स्तर के मुद्दे हर लोकसभा के लिए महत्वपूर्ण होते हैं उनका ना होना जीतने वाले उम्मीदवारों को जिम्मेवारी से भागने में सहायक होता है वह कह सकते हैं फलां मुद्दे पर थोड़े ही आपने हमें संसद भेजा है अगर स्थानीय मुद्दे उठाए जाएं तभी विकास की गंगा उन अभागे छेत्रो तक आ सकती है जो इन पॉपुलिस्ट नारों की वजह राजनीतिक दलों की सस्ती लोकप्रियता में कहीं खो गई सी लगती है । अभी मतदान होने में समय है मतदान तक वोटर को चाहिए कि उम्मीदवारों को स्थानीय मुद्दों पर बात रखने के लिए आग्रह किया जाय इससे उम्मीद और उम्मीदवार दोनो बधे रहेंगे ।।
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