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लोकसभा चुनाव के मद्देनजर,एक पत्रकार आंदोलनकारी का दर्द और वाजिब सवाल क्या हैं,आइये पढ़ते हैं ।
कर्नलों-जनरलों में ‘विकल्प’ देखने वाली आंखों को जमीन पर लड़ने वालों में विकल्प क्यों नहीं दिखता..?
रिटायर्ड कर्नल अजय कोठियाल के पहले चुनाव लड़ने और फिर इनकार के बाद देख रहा हूं कि सोशल मीडिया में प्रतिक्रियाओं का रेला आया हुआ है. बहुत से लोग कर्नल साहब के इस फ़ैसले को ‘विकल्प की आखिरी उम्मीद का टूटना’ कह रहे हैं, तो बहुत से विद्वान साथी इसे दूरदृष्टि भरा उचित फैसला बता रहे हैं. इस तर्क और सुझाव के साथ कि, कर्नल अजय कोठियाल को अपनी ऊर्जा क्षेत्रीय ताकत खड़ी करने में लगानी चाहिए. इन साथियों का मानना है कि उत्तराखंड में कांग्रेस-भाजपा के मुकाबले मजबूत क्षेत्रीय विकल्प तैयार कर पाने की संभावना अब एकमात्र कर्नल साहब में ही है. कर्नल साहब में अपार संभवनाएं देख रहे साथियों की भावनाओं का पूरा सम्मान करते हुए जरूरी है कि कुछ बेहद अहम बातें और सवाल आपके साथ साझा किए जाएं.
सबसे पहला और बुनियादी सवाल यह कि आखिर वर्षों से जमीन पर संघर्ष करने वाले, सत्ता को खुले आम चुनौती देने वाले और उत्तराखंड के असल सवालों को जानने समझने वाले लोगों में क्यों हमें विकल्प नहीं नजर आता ? जो लोग स्पष्ट राजनीतिक समझ के साथ बेहद सीमित संसाधनों के बावजूद लगातार जनमुद्दों पर मुखर होकर लड़ाई लड़ रहे हैं, उनमें क्यों हमें विकल्प नजर नहीं आता ?
प्रदेश का बंटाधार करने वालों को नाम ले-ले कर चिन्हित करने वाले और सत्ता द्वारा प्रताड़ित किए जाने वालों में क्यों हमें विकल्प नजर नहीं आता ?
और अगर संसाधनों की कमी, अपेक्षानुरूप जनसमर्थन न मिल पाने तथा अन्य भी कई वजहों से ऐसे संघर्षशील लोग तमाम कोशिशों के बावजूद तीसरी मजबूत ताकत बन पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं तो फिर इन्हें मजबूत करने में हमारी क्या भूमिका है?
सोशल मीडिया में राय ज़ाहिर करने अथवा अपील करने के अलावा धरातल पर सामूहिक और व्यक्तिगत तौर पर हमारे कितने गंभीर प्रयास रहे हैं ?
और सबसे बड़ा सवाल ये कि जनसंघर्षों में रहने वाले लोगों के पास ऐसे विकट हालतों में क्या विकल्प है? क्या ये लोग संघर्ष छोड़ कर भाजपा-कांग्रेस में चले जाएं? या चुप-चाप घर बैठ कर इस बर्बादी को देखते रहें?
दूसरी तरफ़ उन लोगों में हमें समग्र संभावना दिखती है जो अगर दिल्ली की मेहरबानी हो गई होती तो आज उन्हीं राज्य विरोधी शक्तियों के पाले में होते, उन्हीं की धुन पर नाच रहे होते, उन्हीं की चौकीदारी कर रहे होते.
अगर आप सोशल मीडिया में देखें तो कर्नल साहब के बहुत से समर्थक इसी बात से तो दुःखी हैं कि भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया ?
बहरहाल कर्नल अजय कोठियाल ने प्रेस कांफ्रेंस कर भविष्य में भाजपा-कांग्रेस में शामिल होने के बजाय क्षेत्रीय मुद्दों पर काम करने की बात कही है, जिसका आकलन भविष्य में ही किया जाएगा.
पुनः मूल विषय पर आते हैं. मूल विषय है कि प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बरक़्स तीसरी राजनीतिक शक्ति का स्वरूप कैसा होना चाहिए.
क्या मुख्यधारा की राजनीति में शामिल न हो पाने वाले लोग जिनमे शराब माफ़िया, ठेकेदार, उद्योगपति, प्रपर्टी डीलर और तमाम तरह के खेल करने वाले धंधेबाज और अवसरवादी शामिल हैं, द्वारा बनाया जाने वाले गिरोह को हम तीसरे विकल्प के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, या फिर हमें ऐसे लोग चाहिए जिन्हें पहाड़ के बुनियादी सवालों और सरोकारों से सचमुच में वास्ता है? जिन भी लोगों को विकल्प बताया जा रहा है ज़रा यह तहकीकात भी कर लेनी चाहिए कि पहाड़ में लगातार बंद होते सरकारी स्कूलों, प्राइवेट हाथों के हवाले किए जा रहे अस्पतालों, और पहाड़ के वजूद को खत्म करने के लिए हाल ही में लाए गए भू-कानून के खिलाफ इन्होंने एक शब्द भी कहीं कहा है ?
तमाम दूसरी उपलब्धियां अपनी जगह होंगी, मगर एक सच्चा पहाड़ हितैषी क्या इन मुद्दों पर चुप्पी ओढ़े रख सकता है? ये सवाल अपने आस-पास के हर उस तथाकथित नायक से पूछा जाए जिसमें हम ‘विकल्प’ देख रहे हैं.
कुछ महीने पहले भाजपा-कांग्रेस के दर्जनभर के करीब नाराज नेताओं ने देहरादून में अलग दल बनाने की घोषणा की तो तब भी बहुत से लोगों ने उनका स्वागत करते हुए कहा कि राज्य को तीसरा विकल्प मिल गया है. आज उस गिरोह के अधिकतर अवसरवादी फिर से अपने-अपने दल में चले गए हैं. क्या ऐसे लोग विकल्प हो सकते हैं ?
प्रदेश को आज एक मजबूत, आक्रामक और जनपक्षधर विकल्प की जरूरत है. अपना निजी अनुभव साझा करूं तो पिछले दो वर्षों से हम स्थायी राजधानी गैरसैंण को लेकर आंदोलन में हैं, और प्रदेश की संघर्षशील ताकतें लगातार इस कोशिश में लगी हुई हैं. दो साल पहले 20 मार्च को गैरसेंण में हुए विधानसभा सत्र के दौरान प्रदेश के कोने-कोने से सैकड़ों की तादात में आंदोलनकारी विधानसभा घेराव करने गैरसैंण पहुंचे और गिरफ्तारियां दी. इसके बाद पिछले साल 18 सितंबर को देहरादून में भी विधानसभा सत्र के दौरान आंदोलनकारियों ने घेराव किया. चाहे श्रीनगर से एनआईटी को हटाए जाने का विरोध हो या फिर बागेश्वर में प्राधिकरण के विरोध में चल रहा आंदोलन, प्रदेश की तमाम छोटी-बड़ी आंदोलनकारी ताकतें जनमुद्दों को लेकर लगातार संघर्षरत हैं.
गैरसैंण के आलोक में पहाड़ के तमाम सवालों और उनके जवाब तलाशने के क्रम में हमने बीते दो वर्षों में गैरसेंण, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, गोपेश्वर,हल्द्वानी,अल्मोड़ा, देहरादून और दिल्ली में बैठकें की और सभी से नए सिरे से संघर्ष की अपील की. पिछले साल 10 से 25 अक्टूबर तक चारु दा की अगुवाई में पंचेश्वर
से उत्तरकाशी तक जनसंवाद यात्रा के बारे में आप सभी सुधीजन परिचित हैं. इस यात्रा में यूकेडी, परिवर्तन पार्टी, महिला मंच, वामदलों के नेताओं के साथ ही राज्य आंदोलकारियों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, सरोकारी पत्रकारों और बड़ी संख्या में युवाओं ने भागेदारी की. सुधी सरोकारी साथियों के आर्थिक सहयोग से संभव हो पाई सोलह दिन की इस यात्रा में हमने करीब ढाई हजार किलोमीटर सफ़ किया. पचास सेअधिक छोटी-बड़ी सभाएं और सैकड़ों लोगों के साथ उत्तराखंड के बुनियादी
सवालों को लेकर संवाद किया. इस दौरान हमने पाया कि पिथौरागढ़ से उत्तरकाशी तक समूचे पहाड़ के भीतर भारी बेचैनी और बदलाव
की ज़बर्दस्त छटपटाहट है.
हम इसी छटपटाहट को मूर्त रूप देने के प्रयास में दिन रात जुटे हैं.
आर्थिक तंगी, संसाधनों के घोर अभाव और तमाम व्यक्तिगत चुनौतियों से जूझते हुए आज भी हम इसी कोशिश में जुटे हुए हैं कि उत्तराखंड के सभी सरोकारी और संघर्षशील साथी एक मंच पर आएं और इस लड़ाई को सामूहिक रूप से लड़ें. इसी से 2022 का रास्ता भी बनेगा ये हमारा भरोसा है. मगर इस सच्चाई को स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि हम इस कोशिश में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं. संघर्षशील क्षेत्रीय ताकतें मुद्दा आधरित संघर्षों में तो एक साथ आने को तैयार हैं मगर राजनीतिक मंच पर एक साथ आने को राजी होती नहीं दिख रहीं. फिर भी हम निराश नहीं हैं और हमारी कोशिश जारी है. हम प्रदेश की संभावनाशील युवाशक्ति को एकजुट कर इस मुहिम को नए सिरे से शूरु करने और पूरी आक्रामकता के साथ कांग्रेस-भाजपा से टकराने के लिए प्रतिबद्ध हैं. इसके लिए हमें प्रदेश के सरोकारों से वास्ता रखने वाले आप तमाम साथियों से हर तरह के सहयोग की जरूरत है. सबसे ज़्यादा जरूरत इस बात की है कि जो लोग प्रदेश के मुद्दों पर लगातार संघर्षरत हैं, उनका मनोबल बढ़ाया जाता रहे. ऐसे संघर्षशील साथियों के पास न तो इमेज मैनेजमेंट ट्रिक्स हैं और न ही अकूत संसाधन, मगर फ़ौलादी इरादे और प्रदेश के प्रति जुनून की हद तक प्रेम है. सबसे महत्वपूर्ण बात कि पहाड़ के सवालों, चुनौतियों और समाधान को लेकर व्यापक समझ और दृष्टिकोण है. हमने जनसंवाद यात्रा के दौरान लोगों के बीच एक दृष्टिपत्र भी बांटा जिसमें हमने अपनी समझ और दृष्टिकोण को सामने रखा है.
यह बात तय है कि चालीस से अधिक शहादतों के बाद मिला उत्तराखंड एक दिन जरूर कांग्रेसी-भाजपाई धृष्टता से मुक्त होगा और जनसंघर्षों की जीत होगी.
प्रदेश के सभी हितैषी साथियों से यही अपील है कि मार्गदर्शन करें और अपनी भूमिका भी तय करें…
प्रदीप सती
रास्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्टित पत्रकार रहे हैं
राज्य के सवालों पर पिछले लंबे समय से संघषर्रत हैं
गैरसैण आंदोलन की प्रमुख भूमिका में हैं ।
Hillvarta news desk