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Special Report : राज्य में वनाग्नि के अठारह सौ से अधिक मामले, करोड़ों की वन संपदा खाक,राज्य में वनाग्नि पर वरिष्ठ पत्रकार प्रयाग पांडे की विस्तृत रिपोर्ट @हिलवार्ता

देहरादून : दो दिन पहले ही सूबे के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वनाग्नि की रोकथाम हेतु अधिकारियों की बैठक ली और आवयश्क दिशा निर्देश जारी किए । बैठक में जनपदवार वनाग्नि रोकने के लिए नोडल अधिकारी नियुक्त करने की घोषणा भी की गई ।

राज्य में प्रत्येक वर्ष सैकड़ों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं, जिस कारण अमूल्य वन संपदा समाप्त होती ही है वनाग्नि के कारण हजारों पशु पक्षियों की प्रजातियों के खतरा अलग से होता है । राज्य के पर्वतीय जिलों के ग्रामीणों की रोजमर्रा की जिंदगी पर भी वनाग्नि का भारी विपरीत असर होता है ।

हालांकि सरकारें विभाग को उचित दिशा निर्देश जरूर जारी करती हैं लेकिन धरातल पर कोई ठोस परिणाम नहीं आ पाते हैं । वन विभाग के पास वनाग्नि से निपटने के कोई ठोस उपाय नही हैं कि राज्य में प्रतिवर्ष हो रहे नुकसान को रोक जाए ,शिवाय इसके कि उन्हें इंतजार रहता है कि कैसे भी इंद्रदेव कृपा करें और राहत मिले ।

नैनीताल से वरिष्ठ पत्रकार प्रयाग पांडे द्वारा राज्य में वनों के प्रबंधन और वनाग्नि पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है जिसे हम हिलवार्ता के माध्यम से आप तक पहुचा रहे हैं …

उत्तराखंड के पहाड़ साफ-सुथरा वातावरण, शुद्ध हवा,स्वास्थ्यवर्धक जलवायु,शीतलता, मनोहारी हरियाली और अपने नैसर्गिक सौंदर्य के लिए जाने जाते हैं।प्रकृति प्रदत्त यह ख़ुशगवार मौसम गर्मी के दिनों में देश-विदेश के लाखों सैलानियों को पहाड़ आने के लिए आकर्षित करता है।पहाड़ में हवाखोरी के लिए गर्मियों का मौसम आदर्श समझा जाता है।अफ़सोसनाक बात यह कि पहाड़ को सेहतमंद आबोहवा और दिलकश नजारे प्रदान करने वाले इन्हीं जंगलों के लिए गर्मी का मौसम अभिशाप बनकर आता है।अनियोजित,अव्यवहारिक एवं अदूरदर्शी वन प्रबंधन के चलते स्वास्थ्यवर्धक जलवायु का खजाना समझे जाने वाले पहाड़ के जंगल गर्मी का मौसम शुरू होते ही धधकने लगते हैं।वनाग्नि का यह सिलसिला इस साल भी जारी है।

हमेशा की तरह इस बार की गर्मी की शुरुआत से ही उत्तराखंड के जंगलों ने अग्नि देव का वरण कर लिया है।उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के जंगल धुआँ-धुआँ हैं।इस साल की दो मई तक उत्तराखंड के वनों में आग लगने की करीब 1880 घटनाएं घट चुकी हैं, जिसमें करीब 3000 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र के प्रभावित होने का अनुमान है।वनों में आग की इन घटनाओं में करोड़ों रुपए की बहुमूल्य वन संपदा खाक हो गई है।कई प्रजातियों के पेड़, पौधे, दुर्लभ जड़ी-बूटी और पर्यावरण हितैषी वनस्पतियां आग की लपटों के आगोश में समा चुकी हैं। वन्य जीवों और परिंदों के जीवन को पहुँची क्षति का महज़ अनुमान लगाया जा सकता है।दुर्भाग्य से आज तक इसकी जरूरत नहीं समझी गई है।

उत्तराखंड में अनियोजित वन प्रबंधन और निहित स्वार्थों के कारण पहाड़ की अस्मिता समझे जाने वाले यहाँ के जंगलों का वजूद ख़तरे में है।साल-दर-साल आग लगने की बढ़ती घटनाओं ने यहाँ के जंगल और पहाड़, दोनों के लिए खतरा पैदा कर दिया है।वन संपदा का अवैज्ञानिक एवं बेजा दोहन और वनाग्नि की वजह से पहाड़ में कई तरह की कठिनाइयों को जन्म दिया है। पर्यावरण अपघटन की समस्या उत्पन्न हुई है।

उत्तराखंड में 1815 से 1947 तक करीब 132 साल तक ब्रितानियों की हुकूमत रही। अंग्रेज पहाड़ को ‘हरा सोना’ मानते थे। अंग्रेजी शासनकाल में पहाड़ के भीतर यातायात और संचार का विकास सामरिक जरूरतों और यहाँ की अकूत वन संपदा के दोहन के नजरिए से ही हुआ। इसके बावजूद यह भी सच्चाई है कि अंग्रेजों ने जंगलों के एकतरफा दोहन की नीति नहीं अपनाई।अंग्रेज वनों के दोहन के साथ संरक्षण पर भी उतना ही ध्यान देते थे।अंग्रेजी शासनकाल में वनों की निगरानी और हिफाज़त के लिए सुविचारित और पुख्ता व्यवस्था थी।ब्रिटिश शासनकाल में उत्तराखंड के दूरस्थ घने जंगलों में छह फुट चौड़ी कच्ची सड़कों का जाल बिछाया गया था। ये वन मार्ग अग्निरोधी पंक्ति का काम करते थे। गर्मी का मौसम शुरू होने से पहले इन मार्गों की अनिवार्य रूप से सफाई करा ली जाती थी। मार्च महीने तक संपूर्ण जंगल में फ़ायर लाइन काट ली जाती थी। नियमित फूकान होता था।गर्मियों के मौसम में चार महीनों के लिए फ़ायर वाचरों की नियुक्ति की जाती थी। जंगलों में जगह- जगह वन विश्राम गृह बनाए गए थे। उस दौर में उच्च पदस्थ वनाधिकारी वनों की निगरानी के वास्ते इन वन विश्राम गृहों में नियमित शिविर किया करते थे। वन कर्मचारियों के लिए वनों के नजदीक ही वन चौकियाँ बनाई गईं थीं।वन विभाग का समूचा अमला आज की तरह शहरों में नहीं, बल्कि हमेशा जंगलों या उनके आसपास ही रहा करता था।

ब्रिटिश शासनकाल में 24 अगस्त,1910 को जारी शासनादेश संख्या- 1765/1-148 द्वारा उत्तराखंड के मालगुजारों या पधानों के जिम्मगी के कामों में जंगलों की हिफाज़त और सुरक्षा को भी सम्मिलित किया गया था। मालगुजारों या पधानों को जंगलों की सुरक्षा के लिए कानूनन जिम्मेदार ठहराया गया था। इस शासनादेश के पैरा-21 में मालगुजार या पधान को आदेशित किया गया था कि- ” यदि कोई व्यक्ति बंद जिला जंगल या शाही जंगलों में आग लगाए या क़ायदों के खिलाफ पेड़ों को काटे, पेड़ों की टहनियों को छिले अथवा बिना कानूनी इजाजत जंगलात की पैदावार को बेचे या बेचने को ले जाए तो इसकी रिपोर्ट पटवारी या जंगलात के मुलाजिम को देगा।” जबकि शासनादेश के पैरा-22 में कहा गया था कि “उसके (मालगुजार या पधान) गाँव के नजदीक के किसी संरक्षित बंद सिविल जंगल या शाही जंगल में अगर आग लग जाए तो वह फ़ौरन गाँव वालों को इकठ्ठा कर आग बुझाने जाएगा। जब किसी जंगलात के मुलाजिम द्वारा उसे आग बुझाने को बुलाया जाता है तो वह आग बुझाने में वन कर्मियों की मदद करेगा।” आज स्थिति उलट गई है।आजाद भारत के आधुनिक प्रधान बिना रजिस्ट्रेशन के रजिस्टर्ड ठेकेदार बन गए हैं या बना दिए गए हैं। जंगलों की हिफाज़त के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं बनाया गया है।

आजादी के बाद1949 में उत्तराखंड के सभी जंगल उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन आ गए। आजाद भारत में 1952 में पहली वन प्रबंध नीति बनी। इस नीति में अंग्रेजों की ही वन नीति को आगे बढ़ाया गया। उत्तर प्रदेश सरकार हर साल पहाड़ के जंगलों की सार्वजनिक नीलामी करती थी।तब उत्तर प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ के वनों की नीलामी से आता था। जंगल, सरकार और ठेकेदार की जागीर बन कर रह गए थे। इसी बीच 26 मई,1974 को जोशीमठ के रैणी गाँव की गौरा देवी और अन्य महिलाओं ने अपनी जान की बाजी लगाकर पेड़ों को कटने से बचाने का बीड़ा उठाया। पेड़ों की हिफाज़त के ख़ातिर ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों को अपने आँचल में ले लिया। पेड़ों से चिपक गईं। पेड़, जंगल और पर्यावरण के संरक्षण का यह अनोखा अंदाज ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में विख्यात हुआ।

उत्तर प्रदेश सरकार 1977 तक पहाड़ के वनों की खुलेआम नीलामी करती रही।1977 में पहाड़ के लोग वनों की सार्वजनिक नीलामी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए।जनता के विरोध को अनदेखा कर सरकार वनों की सार्वजनिक नीलामी करने को आमादा थी। 27 नवंबर,1977 को जब नैनीताल के शैलेहाल में पहाड़ के जंगलों की सार्वजनिक बोली लग रही थी, इसी दरम्यान ऐतिहासिक नैनीताल क्लब में आग लग गई। कई आंदोलनकारियों को जेल के सलाखों के पीछे धकेल दिया गया।व्यापक जन विरोध के बाद वनों की सार्वजनिक नीलामी का सिलसिला रुक गया। नतीजतन 1980 में नया वन अधिनियम बना। 1981 में एक हजार मीटर ऊँचाई पर व्यावसायिक रूप से पेड़ काटने पर पाबंदी लगा दी गई।एक जनहित याचिका के क्रम में 1996 में गठित विशेषज्ञ समिति ने वनों का पातन चक्र दस वर्षीय कर दिया, जिससे दावानल की मारक क्षमता और बढ़ गई है।

उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर है।जिसमें से करीब 71 फ़ीसद वन क्षेत्र है, इसमें विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत सभी प्रकार के वन शामिल हैं।24496 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वनाच्छादित है।7350 वर्ग किलोमीटर जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं। 4768 वर्ग किलोमीटर में स्थित सिविल सोयम वन राजस्व विभाग के अधीन हैं।नगर पालिका और छावनी क्षेत्र में 156.44 वर्ग किलोमीटर निजी वन हैं।2012-13 के आंकड़ों के अनुसार वन विभाग के नियंत्रण वाले वनों में से 313054.20 हेक्टेयर में साल, 383088 हेक्टेयर में बांज, 394383 हेक्टेयर में चीड़ के जंगल हैं और 614361 हेक्टेयर में मिश्रित जंगल हैं।जबकि करीब 22.17 फ़ीसद वन क्षेत्र बंजर या खाली है।चीड़ के जंगल आग के मामले में अत्यंत संवेदनशील होते हैं।चीड़ की सूखी पत्तियां वनाग्नि के लिए आग में घी का काम करती हैं।

अलग राज्य बनने से पहले यहाँ राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष 64.79 वन क्षेत्र था।उत्तराखंड वन सांख्यिकी 2012-13 के आंकड़ों के मुताबिक पृथक राज्य बनने के बाद यहाँ के वनों का भौगोलिक क्षेत्रफल और वनाच्छादित क्षेत्र,दोनों में बढ़ोतरी हुई है।वन महकमे का दावा है कि अलग राज्य गठन के बाद उत्तराखंड का वन क्षेत्र 64.79 से बढ़कर करीब 71.05 प्रतिशत हो गया है और 1.141 वर्ग किलोमीटर वनाच्छादित क्षेत्र भी बढ़ गया है।

पहाड़ के जंगलों में हर साल आग लगती है।आग यहाँ के जंगलों की चिर स्थायी समस्या है।वनाग्नि में हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र दावानल के भेंट चढ़ जाता है।लेकिन जंगल की आग को आर्थिक और पारिस्थितिकी दृष्टि से नहीं देखा जाता है।वनों की आग की तपिश उत्तराखंड के तापमान को बढ़ा देती है लेकिन वन विभाग की नींद नहीं तोड़ पाती। लगता नहीं है कि वन विभाग ने वनाग्नि को गंभीरता से लिया हो।जंगल हर वर्ष जलते हैं।वन विभाग आग लगने के कारणों की सतही जाँच के बाद आग से हुए नुकसान का मामूली आंकलन कर मामला दाख़िल-दफ्तर कर देता है।दुर्भाग्य यह कि जंगलों की आग का यह यक्ष प्रश्न पहाड़ में राजनीतिक चिंता का विषय भी नहीं बन सका है।

वन उत्तराखंड की बेशकीमती संपदा है।उत्तराखंड को अलग राज्य बने 22 साल होने को हैं। इतने लंबे कालखंड में उत्तराखंड का वन विभाग वनाग्नि के वैज्ञानिक प्रबंध के लिए तकनीकी प्रशिक्षण की पुख्ता और कारगर व्यवस्था नहीं बना पाया है। 1985 में विदेशी आर्थिक सहायता से कुमाऊँ मंडल में ‘मॉर्डन फ़ायर प्रोजेक्ट’ शुरू हुआ था।इस ‘वन अग्नि शमन परियोजना’ की लागत करोड़ों रुपये थी।इस परियोजना में वन विभाग के रामनगर, नैनीताल, हल्द्वानी आदि सात डिवीजन शामिल किए गए थे।परियोजना के तहत एक हेलीकॉप्टर, दर्जनों अग्नि शमन गाड़ियां, टेंकर आदि उपकरण खरीदे गए थे।वॉच टावर बने।वन विभाग के वन संरक्षक को परियोजना का निदेशक बनाया गया।डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर को अग्नि शमन अधिकारी बनाया गया था।कई अधिकारी जंगल की आग बुझाने के गुर सीखने अमेरिका भेजे गए। 56 लोगों का ‘अग्नि संगठित दल’ बनाया गया। इन्हें वनाग्नि से निपटने के लिए बाकायदा छह महीने का प्रशिक्षण दिया गया।इस दौरान वनाधिकारियों ने हेलीकॉप्टर से खूब हवाई उड़ानें भरी। अनेक सेमिनार हुए। बहुप्रचारित और अति महत्वाकांक्षी यह परियोजना एक दशक तक चली,फिर यकायक बंद हो गई। परियोजना में गए वन विभाग के सभी अधिकारी वापस विभाग में लौट आए।परियोजना से जुड़े दूसरे कर्मचारियों को भी वन विभाग में समायोजित कर लिया गया।

उत्तराखंड की सियासत में ‘जल, जंगल और जमीन’ सर्वदलीय और सार्वभौमिक नारा है।पर इनकी असल स्थिति से सभी नावाकिफ हैं।अलग राज्य बनने के बाद जल, जंगल और जमीन को संरक्षित रखने की दिशा में कारगर और ईमानदार पहल कहीं से नहीं हुई। ये मुद्दे राजनीतिक नारे से आगे नहीं बढ़ पाए।

अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में वनाधिकारियों की संख्या में जरूरत से अधिक इजाफा हुआ।भारतीय वन सेवा के अधिकारियों के पद बढ़े और खूब बढ़े।लेकिन इस अनुपात में जमीनी स्तर पर काम करने वाले कर्मचारियों के पदों में बढ़ोतरी नहीं हुई।पिछले कई दशकों से फ़ील्ड स्टाफ के पदों में इजाफा नहीं हो पाया है। वनों की हिफाज़त के वास्ते जमीनी कारकूनों की कमी के चलते वन संपदा की चोरी की घटनाएं बढ़ीं।गर्मी में वनों की आग, वनों का अवैध दोहन ,चोरी और कागजी वनीकरण के सारे सबूत मिटा देती है।क्योंकि वनीकरण के नाम पर रोपे गए पौधों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है।दावानल के बाद कथित वृक्षारोपण की पुष्टि नहीं की जा सकती है।

प्रदेश के राजस्व का बड़ा हिस्सा वनोपज से आता है। पर वनों की आमदनी का एक छोटा-सा हिस्सा ही यहाँ के वनों की हिफाज़त में खर्च हो रहा है। वन विभाग के हिस्से आने वाली रकम का अधिकांश भाग अफसरों और कर्मचारियों के वेतनादि में खर्च हो जाता है।उत्तराखंड के जंगलों का क्षेत्रफल और वनावरण कागजों में भले ही बढ़ा हो,लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है।बेशक वन भूमि बढ़ी है, पर जंगल सिमट रहे हैं।पहाड़ के ज्यादातर इलाकों में ब्रिटिश राज में बने वन मार्ग और वन सीमा स्तंभों की तक सुध लेने वाला कोई नहीं है।पहाड़ में राजस्व गाँवों और जंगलों की सीमा पर लगे अधिकांश वन सीमा स्तंभ गायब हैं।हालिया अनुभव को देखते हुए लगता है कि जंगलों को अवैध दोहन और वनाग्नि जैसी आपदा से बचाना वन विभाग के बूते से बाहर हो गया है।लिहाजा वन महकमे को वनों के प्रति संवेदनशील दिखने और होने की सख़्त जरूरत है।

हिलवार्ता

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