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उत्तराखण्ड

उत्तराखंड में बागवानी के इतिहास को टटोलती एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट,जिसमे रोजगार की संभावना छिपी है पढ़िए@ हिलवार्ता

कोरोना संकट में उत्तराखंड के करीब 2 लाख 49 हजार लोगों ने घर वापसी के लिए रजिस्ट्रेशन किया है जिनमे से 1 लाख से ऊपर लोग आ चुके हैं भविष्य की चिंताएं बाहर से आए लोगों और राज्य के ग्रामीणों दोनो को हैं आर्थिक संसाधनों की परेशानियां पहले से मौजूद है अब बड़ी आबादी को आर्थिक उपलब्ध संसाधनों के बीच जीवन के लिए जदोजहद करनी होगी । सरकार के पास रटे रटाये शब्द हैं कि स्वरोजगार के लिए लोन ले लो दुकान खोल लो आदि आदि कुल मिलाकर वही सब जो राज्य बनने से पहले यूपी से उद्योग विभाग के माध्यम से किया जाता रहा है । राज्य के बाद जरूरत एक समग्र नीति निर्धारण की थी, जो अदूरदर्शी नेतृत्व के चलते कभी सफल नही हो पाई । ऐसा नही है कि नवोदित राज्य में अलग तरह से नीति बनाई नही जा सकती थी । 20 साल बाद भी आज बड़ी आबादी के लिए सरकार के पास रोडमेप की कमी साफ दिखती है ।

एक बात जो हमेशा से राज्य समर्थक कहते आए कि सत्ता में मौजूद लोग पर्वतीय क्षेत्र में चकबंदी कराए जिससे कृषि के माध्यम से आत्मनिर्भर बना जा सकता है और बड़ी आबादी को रोजगार से जोड़ा जा सकता है उत्तराखंड की आर्थिकी का बड़ा हिस्सा खेती,बागवानी से चलता रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश राज्य के मौजूद संसाधन निजी हाथों में लीज पर देकर खुद नेताओं ने अपने लोगों को सड़क पर ला दिया

उत्तराखंड के प्रतिष्ठित पत्रकार सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी ने इसी विषय पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है उन्होंने राज्य में ब्रिटिश शासनकाल से लेकर आज तक की बागवानी की स्थिति पर आंकड़ों सहित महत्वपूर्ण जानकारी अपनी fb wall पर शेयर की है जिसे आपके लिए हम प्रकाशित कर रहे हैं,समझिए कि एक समृद्ध राज्य, नेतृत्व की कमी की वजह कैसे आज आपदा के दौर में सब कुछ होते हुए किंकर्तव्यविमूढ़ है । आइये पढ़ें 👇

उत्तराखंड में बागवानी फल पट्टी का इतिहास आइये पढ़ते हैं उत्तराखंड में उद्यानीकरण की हकीकत-1

सरकार बार-बार कह रही है कि उद्यानीकरण को रोजगार का आधार बनायेगी। मुख्यमंत्री अपने हर संबोधन में बता रहे हैं कि वे फलोत्पादन और नकदी फसलों से लोगों की आमदनी बढ़ायेंगे, ताकि वे महानगरों की ओर न भागें। सरकार अगर इस तरह सोच रही है तो निश्चित रूप से उसने उद्यानीकरण पर अपना रोडमैप जरूर तैयार किया होगा। मुख्यमंत्री और सरकार की ओर से वही पुरानी बातें कही गर्इ हैं, जो योजनाओं और कागजों तक सीमित रहती हैं। इनके धरातल में न उतरने की वजह से ही लोगों का फलोत्पादन से मोहभंग हुआ। परंपरागत रूप से फलोत्पादन हमारी अर्थव्यवस्था का आधार रही है। फल, सब्जियों, कृषि उपजों आदि से ही ग्रामीण अपना भरण-पोषण करते रहे हैं।

पहाड़ में मनीआर्डर की अर्थव्यवस्था एक साजिश है। बहुत तरीके से लार्इ गर्इ है। यह साबित कराने के लिये कि पहाड़ों में कुछ नहीं हो सकता। बाहर जाकर कमाकर जो आयेगा उसी से जीवन चलेगा। यह झूठ इतनी बार बोला गया कि बाद में इसे बहुत तरीके से ‘मनीआर्डर इकाॅनोमी’ बताकर यहां के संसाधनों की लूट का रास्ता तैयार किया गया। यही वजह है कि जिस खूबसूरत पहाड़ में फलोत्पादन से आत्मनिर्भर बना जा सकता था, उन्हीं जगहों को भू-माफिया से बचाना मुश्किल हो गया है। जिन जगहों पर कभी फलों के बगीचे थे, आज वहां सीमेंट के जंगल खड़े हो गये हैं। सरकार के तमाम उद्यान अंतिम सांसे गिन रहे हैं। उद्यान विभाग ने जिस तरह से एक संभावना को खत्म किया है, उसे सरकार एक कोरोना संकट के बहाने कैसे ठीक कर सकती है यह बड़ा सवाल है। यह सवाल इसलिये भी खड़ा है क्योंकि दो सौ साल में खड़े हुये उद्यानीकरण के ढांचे को जमींदोज करने के बाद सरकार इसे दो महीने या दो साल में कैसे खड़ा कर पायेगी यह सोचने वाली बात है।

उत्तराखंड में फलोत्पादन और उद्यानीकरण का बहुत समृद्ध इतिहास रहा है। प्राचीन इतिहास में भी यहां फलोत्पादन का उल्लेख है। तालेश्वर ताम्रपत्र में ‘वटक’ शब्द आया है। बताते हैं कि यहां केले और दाडि़म (अनार) के बाग रहे थे। केले और दाडि़म आज भी हर घर और गांव में लगाने की परंपरा है। दाडि़म को शुभ कार्यों में महत्ता दी गर्इ है। वाटिका के उल्लेख से पता चलता है कि यहां उद्यान दान में देने की प्रथा रही थी। चंद राजाओं के समय में कपीना (अल्मोड़ा) में उद्यान विकसित हुये थे। बाद में शीपोष्ण फलों सेब, नाशपाती, चेरी आदि को अंग्रेज लाये। अंग्रेज उद्यानीकरण की संभावनाओं को बहुत अच्छी तरीके से जानते-समझते थे। उन्होंने इसकी बहुत मजबूत शुरुआत की। 1850 के दशक में पहाड़ में फलों, सब्जियों, दालों और चाय के बीगीचे स्थापित होने लगे थे।

इसके दो बड़े उदाहरण हैं- उत्तरकाशी का हर्षिल और अल्मोड़ा के चैबटिया गार्डन। उत्तरकाशी के हर्षिल क्षेत्र जो टिहरी राजा के अधीन था, वहां एक अंग्रेज आया जिसका नाम था- फ्रेडरिक विल्सन। उसने इस क्षेत्र में एक नर्इ विलायत बसार्इ। उसने यहां की आबोहवा को समझा। विल्सन ने यहां सेब का बगीचा लगाया। राजमा बोर्इ, आलू की पैदावार की। उसने इस क्षेत्र को कृषि और बागवानी से आत्मनिर्भर बनाने का रास्ता खोला। उस समय एक जुमला चला- ‘सेब दो ही हुये, एक न्यूटन वाला दूसरा विल्सन वाला।’ उसके लगाये सेब को ‘विल्सन सेब’ के नाम से ही जाना गया। दूसरा उदाहरण है रानीखेत का। यहां 1860 में अंग्रेजों ने एक बगीचे की शुरुआत की। जिसे हम सब लोग ‘चौबटिया गार्डन’ और बाद में ‘राजकीय उद्यान’ चौबटिया के नाम से जानते रहे हैं। अंग्रेजों ने 1872 में नैनीताल जनपद के रामगढ़ में आडू और सेब के बगीचों की शुरुआत की। यहां चाय के बगानों को भी लगाया गया। वर्ष 1909 तक ज्योलीकोट जैसी जगहों में सरकारी उद्यान स्थापित हो गये।

हालांकि बगीचों की शुरुआत अंग्रेजों के 1815 के बाद ही शुरू कर दी थी। अंग्रेजों ने 1816-17 में ही जमीन की पहली पैमाइश की। वर्ष 1823 में हुये अस्सी साला बंदोबस्त के बाद जमीनों की नर्इ तरह से पहचान हो गर्इ। उसके अनुरूप नीतियां बनने लगी। उसी का परिणाम हुआ कि अल्मोड़ा जनपद के जलना में जनरल व्हीलर ने एक बगीचा लगाया। यह बगीचा बाद में सेठ शिवलाल परमालाल साह ने ले लिया। बिनसर में बगीचे लगे। स्वीडन हम, लिंक्लन, ऐलन, श्रीमती डेरियाल और भारतीयों में विशारद, उमापति, जगत चंद्र (हरतोला) मोहन सिंह दडम्वाल आदि ने रामगढ़ के आसपास बगीचों का बड़ा कारोबार किया। भवाली में नारायणदत्त भट्ट, रानीखेत में मुमताज हुसैन, स्याहीदेवी में शिरोमणि पाठक और भोलादत्त पांडे ने बड़े बगीचे बनाये। इससे पहले 1835 में पहाड़ में चाय की पैदावार के लिये अंग्रेजों ने पहल की।

चाय का पहला बगीचा 1835 में लक्ष्मीश्वर में डाॅ. फाॅलनर ने लगाया। फाॅलनर चाय की खेती सीखने के लिये चीन गये। वे 1842 में अपने साथ कुछ चीनी नागरिकों को लाये। हवालबाग में 1841 में मेजर कार्बेंट ने बगीचा लगाया, जिसे कुछ समय सरकार ने और बाद में लाला अमरनाथ साह ने खरीद लिया। रैमजे ने भी 1850 में एक बगीचा बनाया। उसे नारमन ने खरीदा। भवाली में न्यूटन का बगीचा और मुलियन का बगान प्रसिद्ध हुये। मुलियन ने घोड़ाखाल में भी बगीचा बनाया। बज्यूला, ग्वालदम, डुमकोट, ओड़ा, लोध, दूनागिरी, जलना, बिनसर, गौलपालड़ी, सानी उड्यार, बेरीनाग, डोल, लोहाघाट, झगतोला, कौसानी, स्याहीदेवी, चकोड़ी, छीनापानी, लैंसडाउन, देहरादून आदि में चाय लगार्इ गर्इ। पहले ये अंग्रेजों के पास थे बाद में ‘फ्री सिम्पल रियासतो’ के पास चले गये। इनके अलग-अलग मालिक हो गये। इन सब बागीचों के मालिकों की खासियत यह रही कि इन्होंने अपने बगीचों के साथ लोगों को फलदार पेड़ लगाने के लिये प्रेरित किया। गांव वालों को निःशुल्क फलदार पेड़ बांटे। यही वजह है कि उत्तराखंड में कर्इ गांवों में हमें छोटे-छोटे बगीचों की पुरानी संस्कृति देखने को मिल जाती है।

पहाड़ में उद्यानीकरण की इतिहास की इन बातों को जिक्र आगे उद्यानीकरण की हालत को समझने में सहायक होगा। इसलिये संक्षिप्त में उसका इतिहास जानना जरूरी है। उससे सीखना भी। उद्यानीकरण की मौजूदा हालत पर बात की शुरुआत हमें चौबटिया से ही करनी पड़ती है। चौबटिया गार्डन की स्थापना 1860 में हुर्इ। लेकिन इसने विधिवत 1869 से बाग का रूप लिया। मि. क्रो के नेतृत्व में यहां सेब, नाशपाती, खुबानी, प्लम, चेरी लगार्इ गर्इ। स्पेन और जापान से चेस्टनट (मीठा पांगर) भी लाया गया। के पीछे फलोत्पादन को आर्थिकी का आधार बनाने की इच्छाशक्ति थी। यह प्रयोग बहुत सफल रहा। इस बगीचे में उन्नत किस्म के फलों सेब, आडू, खुमानी, पुलम, चेरी आदि के उत्पादन से अंग्रेजो ने पहाड़ों में फलोत्पादन की शुरुआत की। वर्ष 1870 में चौबटिया गार्डन में सेब के 1902, नाशपाती के975, वेस्टनट के 427, खुबानी के 580, प्लम के 188, आडू के 180, चेरी के 170 सहित कुल 4,422 फलदार वृक्ष थे। कृषि विशेषज्ञ स्टोक यहां सबसे पहले ‘रेड डेलीसियस’ नामक सेब लाये। उस समय यहां सेब की 91, नाशपाती की 34, खुबानी की 8, चेरी की 10, आडू की चार, पुलम की 13 प्रजातियां थीं। वर्ष 1893-97 में यहां से औसतन 1078 का राजस्व प्राप्त होता था।

कृषि विशेषज्ञ और उत्तराखंड की बागवानी को गहरे तक जानने वाले डाॅ. राजेन्द्र कुगसाल इसे विस्तार से बताते हुये कहते हैं कि भारतवर्ष का पहला शीतोष्ण फलों का शोध केन्द्र भी चौबटिया में ही खुला। ब्रिटिश शासनकाल में 1932 में पर्वतीय क्षेत्रों में फलोत्पादन संबंधी जागरूकता के लिये इसे प्रसार और शोध के लिये विशेष रूप से आगे बढ़ाया। इस संस्थान में कृषकों को पौंधो लगाने, पौंधो को प्रसारण, मृदा की जानकारी, खाद-पानी देने, कटार्इ-छंटार्इ, कीट-ब्याधियों से बचाव आदि के लिये प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा। वर्ष 1932 से 1955 तक इसकी वित्तीय व्यवस्था कृषि अनुसंधान संस्थान करता था। इसकी सफलता को देखते हुये यहां पौंध दैहिकी (प्लांट फिजियोलाॅजी), पादप अभिजनन (प्लांट ब्रीडिंग), भेषज, मशरूम के विभाग भी खोले गये। तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविन्दबल्लभ पंत मुख्यमंत्री ने पहाड़ में फलोत्पादन को बढ़ाने की मंशा से रानीखेत में 1953 में उद्यान विभाग का निदेशालय खुलवाया। इसके बाद लगातार इस क्षेत्र में कार्य हुआ। साठ के दशक में फिर गढ़वाल मंडल में भी बगीचों की स्थापना होने लगी।

हेमवतीनन्दन बहुगुणा के समय में 1974 में फलोत्पादन को गांव-गांव तक पहुंचाने के लिये चौबटिया फल शोध केन्द्र के अन्तर्गत पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर और कोटद्वार, चमोली के कोटियालसैंण, टिहरी के सिमलासू, उत्तरकाशी के डंुडा, देहरादून के ढकरानी और चकरोता, नैनीताल के ज्योलीकोट व रुद्रपुर, अल्मोड़ा के मटेला, पिथौरागढ़ के गैना (ऐंचोली) में उपकेन्द्र खोले गये। इन संस्थानों के खुलने से शीतोष्ण और समशीतोष्ण फलों, सब्जियों और मसालों के प्रति किसानों में न केवल जागरूकता बढ़ी, बल्कि वे इसे अपनी आर्थिकी का आधार भी बनाने लगे। लेकिन अब ये सारे संस्थान लगभग बंद हो गये हैं। इन्हें तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी संभाल रहे हैं। हेमवतीनन्दन बहुगुणा ने बागवानी को बढ़ाने के लिये ‘बागवानी मिशन’ और बाद में नारायणदत्त तिवारी ने एक उच्चस्तरीय ‘बक्शी एवं पटनायक कमेटी’ बनाकर पर्वतीय क्षेत्र में बागवानी को सुदृढ़ करने के प्रयास किये। पर्वतीय क्षेत्रों में उद्यानीकरण के विकास के लिये चौबटिया गार्डन से जो शुरुआत हुर्इ उसने निश्चित रूप से बागवानी के लिये रास्ता तैयार किया। सरकार ने इस संस्थान के निर्देशन में पर्वतीय क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में सरकारी बगीचे लगाये।

मौजूदा समय में अल्मोड़ा में 11, नैनीताल में 11 पिथौरागढ़ में 15, बागेश्वर में 2, चंपावत में 6, ऊधमसिंहनगर में 3, पौड़ी में 9, चमोली में 11, रुद्रप्रयाग में 4, हरिद्वार में 1, देहरादून में 8, उत्तरकाशी में 7 और टिहरी में 7 उद्यान लगाये। राज्य बनने के बाद जहां ये उद्यान फलोत्पादन से किसानों की आथ्र्िाकी का आधार बन सकते थे, वहीं सरकार ने इन्हें एक-एक कर खुर्द-बुर्द करना शुरू कर दिया। राज्य आंदोलन के समय लोग कहते थे कि हम राज्य को उद्यानीकरण की अर्थव्यवस्था से ही आत्मनिर्भर बना देंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा। जब राज्य में पहली चुनी हुर्इ नारायणदत्त तिवारी के नेतृत्व में पहली चुनी हुर्इ सरकार आर्इ तो उन्होंने इन बगीचों को निजी हाथों में देने का रास्ता तैयार कर दिया। राज्य के सभी 104 बगीचों को निजी कंपनियों को लीज पर दे दिया गया। इसके बाद तो उद्यानीकरण का जो बाजा बजा उसे चैबटिया गार्डन से समझा जा सकता है। चैबटिया गार्डन जो कभी 235 हैक्टेयर में फैला था अब मात्र 106 हैक्टेयर में सिमटकर रह गया है। अब यहां मात्र 60 हैक्टेयर क्षेत्रफल में सेब होता है। कभी इस बगीचे से 500 से 700 टन तक सेब का उत्पादन होता था जो आज मात्र 20 से 30 टन रह गया है। जिन बगीचों को सरकार ने लीज पर दिया था 2012-13 में फिर विभाग में वापस ले लिये गये। इन सभी बगीचों की स्थिति मौजूदा समय में दयनीय है। इनमें से चार बगीचे अभी भी लीज पर हैं। (जारी…)

संदर्भः

  1. कुमाऊं का इतिहास, बद्रीदत्त पांडे।
  2. ‘शोध गंगा’ में प्रकाशित ‘उत्तराखंड में उद्यानीकरण का इतिहास’ अध्याय-5, शोधकर्ता का नाम नहीं दिया है।
  3. शरदोत्सव रानीखेत से प्रकाशित स्मारिका-1993 में रामलाल शाह का लेख- ‘ए शाॅर्ट हिस्ट्री आॅफ गवनर्मेंट गार्डन, चौबटिया ।
  4. निदेशालय, उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण, उत्तराखंड, उद्यान भवन चौबटिया ।
  5. कृषि विशेषज्ञ डाॅ राजेन्द्र कुगसाल से लगातार लंबी बातचीत।
  6. रामगढ में पृथ्वीसिंह, भीमताल में संजीव भगत, रानीखेत में गोपाल उप्रेती का फीडबैक।
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